“ग़ज़ल – ए – पिता”
“ग़ज़ल – ए – पिता”
“ — ख़ामोश दुआ का सफ़र — ”
इस कविता के द्वारा कवि अपनी सोच को व्यक्त करते हुए ये कहना चाहता है कि पिता वो ख़ामोश दुआ हैं, जो बिना कुछ कहे हमारे हर दर्द का मरहम बन जाते हैं। ज़िंदगी के हर मोड़ पर उनका साया हमें ठहराव, सब्र और मोहब्बत का असली अर्थ सिखाता है। यह ग़ज़ल एक बेटे की उस भावनात्मक सच्चाई का इज़हार है — कि अगर कहीं खुदा है, तो वह पिता के रूप में ही हमारे साथ है।
कहते हैं — पिता वो दरख़्त हैं,
जिसकी छाँव में ज़िंदगी कभी थकती नहीं,
बस सुकून पाती है।
उनकी चुप्पी में भी इबादत है,
उनकी थकान में भी रूह की राहत है।
इस ग़ज़ल में — मैं अपने पिता को देखता हूँ,
एक ख़ामोश फ़रिश्ता,
जो उम्र के हर मोड़ पर हमारी ख़ुशियों को
अपनी क़िस्मत बना देता है।
जो अपनी थकान छुपाकर,
मुस्कुराहटों का संसार रचता है,
और मौन को अमन में ढाल देता है।
ये ग़ज़ल — एक बेटे की ओर से
उसके पिता को समर्पित है।
वो ख़ामोशियों में भी एक निशाँ है पिता,
हर दर्द के पीछे जो शिफ़ा है पिता।
ज़माने की ठोकरें जब लहू कर गईं,
तो मरहम बनी हर अदा है पिता।
जो साए में रखे हमें सूरज तले,
वो तन्हाई में भी पनाह है पिता।
जो आँधियों में भी दिया जलाते रहे,
वो रौशनी का मुकम्मल सिला है पिता।
हवाएँ भी थक जाएँ जिनके सब्र से,
वही सब्र-ए-ख़ुदा की वफ़ा है पिता।
हर ख़ुशी हमें दे, ग़म खुद में रखे,
यही फ़ना में भी वफ़ा है पिता।
थकान भी हसीं लगती है जिनके चेहरे पर,
वो मेहनत की इबादत बना है पिता।
हर चाहत को अपने वजूद में समेटे,
वो ममता से आगे बढ़ा है पिता।
जो बिना कुछ कहे समझ लें सब बात,
वो ख़ामोश लफ़्ज़ों का आईना है पिता।
उसके क़दमों में सुकून-ए-जहाँ पाया,
जहाँ का सब से बड़ा राब्ता है पिता।
जब बच्चा गिरता पहली बार ज़मीं पर,
तो हाथ पकड़ने वाला खुदा है पिता।
बचपन में जब खिलौने टूटे,
तो मुस्कान से जोड़ता है पिता।
ख़्वाबों की दुनिया में जब मैं खोया,
तो हक़ीक़त की राह दिखाता रहा है पिता।
हर रोटी में आधा हिस्सा छोड़ा,
मेरा पेट भरने की वज़ा है पिता।
वो जो खुद भूखा रहा रातभर,
मेरा चैन बनकर जिया है पिता।
उम्र के संग झुके बदन की रेखाएँ,
अब झुर्रियाँ लकीरों में किस्सा लिख रही है पिता।
सफ़ेद बालों में जो चाँद सा चमके,
वो वक़्त की सच्ची नवा है पिता।
अब कमज़ोर नज़रें भी जो ढूँढ लें मुझे,
वो मोहब्बत की इंतिहा है पिता।
जो हँसी में भी छुपा ले अपने दर्द,
वो ख़ामोशियों का राब्ता है पिता।
अब चलना भी धीमा, पर दिल वही तेज़,
हर धड़कन में बसा है पिता।
थककर भी जब हँसते हैं बेफ़िक्र से,
वो जज़्बा-ए-ज़िन्दगी की सना है पिता।
जो सब्र को सजदा बनाकर जीता,
वो असली इबादत दिखा है पिता।
रूह-ए-फ़रिश्ता, लिबास-ए-इंसान,
वो रहमत का फ़लसफ़ा है पिता।
हर तन्हाई में भी जो रौशनी करे,
वो दिल का उजाला है पिता।
कभी शिकवा नहीं, बस शुक़्र ही शुक़्र,
वो सब्र का पैग़ाम है पिता।
जो गिरकर भी न बोले कुछ,
वो मर्द-ए-इश्क़ का फ़साना है पिता।
अब जब उनकी आँखों में उम्र ठहरती है,
तब लगता है — वक्त का साया है पिता।
उनके बिना घर भी घर नहीं लगता,
उनका होना ही ज़िंदगी का रज़ा है पिता।
मैं ख़ुदा को नहीं मानता अब, मगर सच ये है —
आपके साये में ही मिला वो खुदा है पिता।
मंदिरों में सन्नाटा है, पर घर में है रौशनी आपकी,
हर सांस में गुंज रही दुआ है पिता।
कभी सोचा नहीं आप कौनसा भगवान है,
फिर समझ आया — मेरा खुदा है पिता।
‘हार्दिक’ कहता है —
आप ही उसकी दुनिया का आसरा हो पिता,
आपके बिन ये जहाँ अधूरा,
क्यूंकि उसके हर असआर की दुआ है पिता।
– हार्दिक जैन। ©
इंदौर ।। मध्यप्रदेश ।।
Writco ©
कठिन शब्दों के अर्थ -
1. दरख़्त – पेड़।
2. शिफ़ा – इलाज।
3. अदा – तरीका।
4. सिला – इनाम।
5. फ़ना – त्याग।
6. वफ़ा – सच्ची लगन।
7. राब्ता – रिश्ता।
8. वज़ा – वजह।
9. नवा – आवाज़।
10. सना – प्रशंसा।
11. सजदा – सिर झुकाना।
12. फ़लसफ़ा – जीवन-दृष्टि/ नजरिया।
13. फ़साना – दास्तान।
14. रज़ा – संतोष/इच्छा।
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